ब्रतानिया हुकूमत के खिलाफ हमारे नौजवान, वीर-वीरांगनाओं व बुद्धिजीवियों तथा महापुरूषों के मन में विचार ही तो फूटा था जिसका परिणाम ब्रतानिया हुकूमत का पतन हुआ । वास्तव में जिसको वर्तमान में विकास समझा जा रहा है वह विकास नहीं विनाश है । जब तक समाज को वर्तमान शिक्षा पद्धति से होनेवाली क्षति को रोककर प्राकृतिक ऐच्छिक शिक्षा पद्धति के आधार पर शिक्षार्थी की प्रतिभा को विकसित कर पराकाष्ठा तक नहीं ले जाया जाएगा तब तक बहुमुखी विकास असंभव है । विद्यालयों में बुनियादी शिक्षा बोध शिशु को प्राकृतिक बौद्धिक प्रवृत्ति के अनुसार समय व समाज की जरूरतों से जुड़ी हुई शिक्षा दी जाय तभी प्रत्येक शिक्षार्थी निश्चित रूप से पराकाष्ठा को प्राप्त कर सकेगा व्यावहारिक, आर्थिक, राजनैतिक, आध्यात्मिक विकास के तह सदाचारी, मानवधर्मी, विश्वासी, सद्कर्मी, एकात्मावादी, एकेश्वरवादी, स्वाबलंबी आदि मानव मूल्य कायम करते हुए राष्ट्र तथा अपने भविष्य को उज्जवल कर मानव कल्याण कर सकेगा । समाज की राजनैतिक, आर्थिक, मानसिक, सामाजिक दरिद्रता के निराकरण के लिए एकमात्र रास्ता दीक्षित शिक्षा की उन्नत प्राकृतिक ऐच्छिक शिक्षा पद्धति को लागू किए जाने की जरूरत है । शिक्षा और रोजगार के गड़बड़ाते समीकरण को ठीक करने की आवश्यकता है । राष्ट्र में वर्तमान समय में दस करोड़ से भी अधिक स्नातक तथा स्नातकोत्तर हैं । हम सोचने लगते हैं कि हमारी डिग्रियाँ और हमारा जीवन क्या है? जब इन डिग्रियों से रोजगार नहीं मिलता है तो क्या जरूरत है इनको प्राप्त करने की? क्या नरक का जीवन जीने के लिए प्राप्त की थी शिक्षा? जब यह डिग्रियाँ इस जीवन में काम नहीं आ रही हैं तो क्या मरने के पश्चात स्वर्ग में काम आएंगी? दुर्भाग्य का विषय है कि सभी पार्टियों और नेताओं की समझ में यह आज तक नहीं आ सका कि समाज में मजबूत शिक्षा स्तंभ से ही सुशासन पद्धति लागू की जा सकती है । सन् १९४७ से आज तक राष्ट्र व समाज के सभी नेताओं द्वारा दिशा भ्रमित किया जाता रहा है । आज युवा जगत रूपी प्रकाशपुंज को विश्वपटल पर अग्रगण्य कर सकेगा । बुद्धिजीवियों, सूफी-संतों, महापुरूषों, नौजवान युवक-युवतियों की तरह से समाज का पतन हो रहा है । महाभारत काल में भीष्मपितामह की तटस्थता कौरव दल में स्त्री को नग्न होते देख रही थी और आज हम सभी की तटस्थता से वर्तमान राजनैतिक पार्टियों के गठबंधन “घटक दल” अधर्मी रूप में पनप रहे हैं । उस दौरे के अधर्मी कौरव दल भी आज के गठबंधनों के घटक दलों जैसे ही तो थे । क्या यही भारतीय संस्कृति है? और क्या होंगे? अभी भी वक्त है कि समय रहते अपने सहयोग सद्विचारों से समाज की मूलभूत आवश्यकताओं को समझते हुए अपने कर्तव्य का पालन करें तो निश्चित रूप से सुदृढ़ एवं चहुमुखी विकास होगा ।
शिक्षा का प्रथम उद्देश्य बच्चों को एक परिपक्व इन्सान बनाना होता है, ताकि वो कल्पनाशील, वैचारिक रूप से स्वतन्त्र और देश का भावी कर्णधार बन सकें, किन्तु भारतीय शिक्षा पद्धति अपने इस उद्देश्य में पूर्ण सफलता नहीं प्राप्त कर सकी है, कारण बहुत सारे हैं । सबसे पहला तो यही कि अंगूठाछाप लोग डिसाइड करते हैं कि बच्चों को क्या पढ़ना चाहिये, जो कुछ शिक्षाविद् हैं वो अपने दायरे और विचारधाराओं से बंधे हैं, और उनसे निकलने या कुछ नया सोचने से डरते हैं, ऊपर से राजनीतिज्ञों का अपना एजेन्डा होता है, कुल मिलाकर शिक्षा पद्धति की ऐसी तैसी करने के लिये सभी लोग चारों तरफ से आक्रमण कर रहे हैं, और ऊपर से तुर्रा ये कि ये सभी लोग समझते हैं कि सिर्फ वे ही शिक्षा का सही मार्गदर्शन कर रहे हैं, जबकि दरअसल ये ही लोग उसकी मां बहन कर रहे हैं । मैं किसी एक पर दोषारोपण नहीं करना चाहता, शिक्षा पद्धति की रूपरेखा बनाने वालों को खुद अपने अन्दर झांकना चाहिये और सोचना चाहिये, कि क्या उसमें मूलभूत परिवर्तन की जरूरत है। आज हम रट्टामार छात्र को पैदा कर रहे हैं, लेकिन वैचारिक रूप से स्वतन्त्र और परिपक्व छात्र नहीं, क्या यही हमा…
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