‘दलित स्त्रियों की यातना, उनका संघर्ष और उनकी उपलब्धियाँ इतिहास में अपनी दस्तक देती रही हैं । उगते हुए सूरज की किरणों की तरह अपनी आभा बिखेर कर वे समाज को ऊर्जावान बनाती रही हैं । संघर्षशील दलित नायिकाएँ कीचड़ में कमल और धूसरित पगडंडी के किनारे पड़े चमकते मोती की तरह बरबस अपनी ओर सबका ध्यान खींच लेती हैं ।
बाबासाहब डॉ. भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में दलित आंदोलन समानता के आंदोलन का प्रतीक बना, अतः ऊँची-नीच, जात-पाँत और और लैंगिक असमानता के विरूद्ध इसका मुखर आह्वान रहा है । दलित समाज तीन हजार साल से अधिक अपनी गुलामी से मुक्ति की मशाल जलाए ब्राह्मणवाद को ललकारता रहा है । वह ब्राह्मणवाद के विरूद्ध अपने संघर्ष में अपने पुस्तैनी धंधे छोड़ रहा था तो नई दुनिया में नए-नए आदर्श स्थापित कर रहा था । दलित स्त्रियाँ भी कंधे से कंधा मिलाकर इन संघर्षों को नेतृत्व दे रही थीं ।
डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में दलित आंदोलन ने भूखी-प्यासी, गरीबी से त्रस्त दलित जनता में अपने अधिकारों के लिए लड़ने की जान फूँकी । मंदिरों में घुसकर देवताओं के दर्शन का अधिकार, सार्वजनिक स्थलों पर आने-जाने और उन्हें इस्तेमाल करने के समान अधिकार को हासिल करने के लिए सड़क पर उतर कर लड़ने में दलित पुरूषों के साथ-साथ स्त्रियों ने भी सक्रिय भूमिका अदा की । १९४२ में नागपुर में दलित महिलाओं का ऐतिहासिक अधिवेशन इसी बात की ओर इशारा करता है । अनेक अंबेडकरवादी स्त्रियाँ गाँव-गाँव जाकर अंबेडकर की आवाज अन्य स्त्रियों तक पहुँचा रही थीं । वे भाषण देने से लेकर स्कूल खोलने के अभियान में जुट गई थीं । उनमें शांताबाई दाणी का नाम और उनके कार्य समाज में अपना विशेष स्थान रखते हैं । महाराष्ट्र की राजनीति और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के नेताओं की सूची ताई शांताबाई दाणी के नाम के बिना अधूरी है ।
शांताबाई दाणी का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के खड़कली गाँव की एक झोंपड़ी में हुआ । महाराष्ट्र के प्रख्यात कविवर वि. वा. शिरवाडकर शांताबाई के सम्मान में कहते हैं, “महार जाति में जन्मी, उच्च शिक्षित कुशल नेतृत्व की क्षमता से ओत-प्रोत, युवावस्था में बाबासाहब के भाषण और कार्यों से प्रेरित हो अपना समस्त जीवन विद्रोही दलित आंदोलन को समर्पित करने वाली शान्ताबाई एकमात्र कार्यकर्ता थीं । उसके हृदय में कभी न अस्त होने वाला सूर्य था जिसका प्रकाश आज तक चमक रहा है । ” शांताबाई का जन्म एक महार परिवार में हुआ था । शांता के जन्म से पूर्व उनके परिवार को खासतौर से उनके पिता और दादी को घर में एक लड़का होने की उम्मीद थी और जन्म लिया लड़की ने । लड़की के जन्म से उन्हें बेहद तकलीफ हुई ।
पिता ने अपनी इस तकलीफ के बावजूद शांता को खूब प्यार किया । वह उसे अपने पास बिठाकर पढ़ाते, अपने साथ-साथ लेकर घूमते । उनका दूध बेचने का धंधा था । अचानक शांता के एक भाई की मृत्यु से उन्हें इतना सदमा हुआ कि उन्होंने उसकी क्षतिपूर्ति शराब पीकर की । उनके इस भटकाव से घर बुरी तरह से गरीबी और तंगहाली में आ गया । शांता का बड़ा भाई अण्णा, जो उनका सौतेला भाई था, अब घर की जिम्मेवारी निभाने लगा । शांता की माँ की बड़ी इच्छा थी कि शांता पढ़े । शायद इसलिए कि उनकी बड़ी बेटी की गृहस्थी बहुत खराब चल रही थी । इसकी एक वजह वो अपनी बेटी के पाँव पर खड़ा न होना भी मानती थीं । इसलिए उसने शांता को खूब पढ़ा-लिखाकर पाँव पर खड़ा करने का संकल्प कर लिया था । चौथी कक्षा तक इनकी पढ़ाई गाँव में हुई, पांचवीं के लिए इन्हें गाँव से दूर जाना पड़ा जहाँ इन्हें एक अध्यापक दाणी मिले जिन्होंने इनकी पढ़ाई-लिखाई और व्यक्तित्व विकास में बहुत सहयोग दिया । जागरूक माँ बच्ची की पढ़ाई के बारे में पूछने जाती । दाणी मास्टरजी ने पढ़ाई के प्रति उनकी जागरूकता और महत्वाकांक्षा को पहचान कर शांता को ७वीं कक्षा में पूना के सरकारी विद्यालय में दाखिला दिया ।
इस तरह वे घर से बाहर छात्रावास में रहकर १०वीं की पढ़ाई तक आ पहुँची । इसी दौरान उनकी मुलाकात डॉ. लोंढे से हुई जिनसे इन्हें बड़ी बहन का प्यार व आगे पढ़ने की प्रेरणा मिली । दसवीं के रिजल्ट से पूर्व की इनकी माँ का देहांत हो गया । अब शांता के जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया । इन्होंने आगे की पढ़ाई जारी रखी । जब बीए की छात्रा थीं तो इनकी मुलाकात दादासाहब गायकवाड़ से हुई । दादासाहब गायकवाड़ डॉ. भीमराव अंबेडकर के साथ मिलकर छुआछूत के भेदभाव से त्रस्त दलित समाज में विद्रोह के स्वर भर रहे थे । उन्होंने शांता को इन सब बातों की जानकारी दी और बाबासाहब डॉ. अंबेडकर से उनका परिचय कराया । पढ़ी-लिखी दलित युवती दलित आंदोलन की जिम्मेवारी अपने कंधों पर उठाए इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है ।
एक बार कार्यकर्ताओं की बैठक में बाबासाहब बोल रहे थे तो उनकी आवाज भर्रा गई । स्वयं को संभालते हुए उन्होंने कहा, “मुम्बई जैसे शहर के बंधुओं की शिक्षा के लिए मैंने बहुत कुछ किया है, परन्तु गाँव में रहने वाले अपने बंधुओं और खासतौर अपनी लड़कियों के लिए मैं कुछ न कर सका, इसका मुझे बेहद दुःख है । ”
शांता इस सभा में उपस्थित थीं । शायद डॉ. अंबेडकर की भर्राई आवाज ने उन्हें जीवन भर ग्रामीण दलित भाई-बहनों के लिए काम करने का संकल्प लेने को प्रेरित किया । शांता ने ताउम्र शादी न करके मिशन का काम करने का संकल्प ले लिया । सार्वजनिक कामों के लिए शांता ने पढ़ाई बीच में छोड़ दी । एक कार्यकर्ता और महिला नेता के रूप में से उन्हें काफी सम्मान मिला । वे नासिक जिले की शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की अध्यक्ष मनोनीत कर दी गईं । उनके ओजस्वी भाषण महिलाओं के लिए विशेष आकर्षण थे ।
शांता ने महाराष्ट्र के गाँव-गाँव जाकर दलितों खासकर दलित स्त्रियों को जगाने में अपना जीवन लगा दिया । अपनी सहेली उजागरे बाई की देखरेख में स्कूल खोला । सरकार से उनके कार्यों के लिए जब उन्हें दलित मित्र अवार्ड मिला तो अवार्ड की राशि को उन्होंने डॉ. अंबेडकर शताब्दी के लिए दान कर दिया ।
रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के नेता दादासाहब गायकवाड़ के साथ मिलकर इनके प्रयासों से भूमि सुधार आंदोलन में तेजी आई । दादासाहब गायकवाड़ के बीमार हो जाने पर पार्टी के नेतृत्व में बंदरबाँट व षड्यंत्र को रोकने में उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व का परिचय देते हुए उसे सुलझाने की पहलकदमी की । शांताबाई दाणी ने आरपीआई में टूट-फूट व गुटबंदी को रोकने और एकता लाने के कई बार प्रयास किए ।
आज शांताबाई दाणी हमारे बीच में नहीं हैं परन्तु दलित राजनीति में तथाकथित दिग्गजों की महत्वाकाँक्षा से उभरे विवादों को उन्होंने जिस तरह उन्हें एक साथ लाकर सुलझाने के प्रयास किए वे आज भी हमारे लिए मार्गदर्शक हैं ।
शांताबाई का व्यक्तित्व व उनके कार्यों को उत्तर भारत में लाने का यह प्रथम प्रयास सेंटर फॉर आल्टरनेटिव दलित मीडिया(कदम) कर रहा है ।
शांताबाई दाणी के व्यक्तित्व और कार्यों से भारत के पाठकों का परिचय कराने के पीछे हमारा उद्देश्य है दलित राजनीति में दलित महिला नेत्रियों के जीवन पर प्रकाश डालने के साथ-साथ तत्कालीन आंदोलन में पितृसत्तात्मक रूझानों को स्पष्ट करना । आरपीआई के अनेक नेताओं में शांताबाई दाणी का नाम अग्रणी है । परन्तु हमारे आंदोलन के कर्णधारों ने स्त्रियों के नेतृत्व व योगदान को जाने-अनजाने में पर्दे के पीछे खिसका देने की भूमिका अदा की है ।
- रजनी तिलक
बाबासाहब डॉ. भीमराव अंबेडकर के नेतृत्व में दलित आंदोलन समानता के आंदोलन का प्रतीक बना, अतः ऊँची-नीच, जात-पाँत और और लैंगिक असमानता के विरूद्ध इसका मुखर आह्वान रहा है । दलित समाज तीन हजार साल से अधिक अपनी गुलामी से मुक्ति की मशाल जलाए ब्राह्मणवाद को ललकारता रहा है । वह ब्राह्मणवाद के विरूद्ध अपने संघर्ष में अपने पुस्तैनी धंधे छोड़ रहा था तो नई दुनिया में नए-नए आदर्श स्थापित कर रहा था । दलित स्त्रियाँ भी कंधे से कंधा मिलाकर इन संघर्षों को नेतृत्व दे रही थीं ।
डॉ. अंबेडकर के नेतृत्व में दलित आंदोलन ने भूखी-प्यासी, गरीबी से त्रस्त दलित जनता में अपने अधिकारों के लिए लड़ने की जान फूँकी । मंदिरों में घुसकर देवताओं के दर्शन का अधिकार, सार्वजनिक स्थलों पर आने-जाने और उन्हें इस्तेमाल करने के समान अधिकार को हासिल करने के लिए सड़क पर उतर कर लड़ने में दलित पुरूषों के साथ-साथ स्त्रियों ने भी सक्रिय भूमिका अदा की । १९४२ में नागपुर में दलित महिलाओं का ऐतिहासिक अधिवेशन इसी बात की ओर इशारा करता है । अनेक अंबेडकरवादी स्त्रियाँ गाँव-गाँव जाकर अंबेडकर की आवाज अन्य स्त्रियों तक पहुँचा रही थीं । वे भाषण देने से लेकर स्कूल खोलने के अभियान में जुट गई थीं । उनमें शांताबाई दाणी का नाम और उनके कार्य समाज में अपना विशेष स्थान रखते हैं । महाराष्ट्र की राजनीति और रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के नेताओं की सूची ताई शांताबाई दाणी के नाम के बिना अधूरी है ।
शांताबाई दाणी का जन्म महाराष्ट्र के नासिक जिले के खड़कली गाँव की एक झोंपड़ी में हुआ । महाराष्ट्र के प्रख्यात कविवर वि. वा. शिरवाडकर शांताबाई के सम्मान में कहते हैं, “महार जाति में जन्मी, उच्च शिक्षित कुशल नेतृत्व की क्षमता से ओत-प्रोत, युवावस्था में बाबासाहब के भाषण और कार्यों से प्रेरित हो अपना समस्त जीवन विद्रोही दलित आंदोलन को समर्पित करने वाली शान्ताबाई एकमात्र कार्यकर्ता थीं । उसके हृदय में कभी न अस्त होने वाला सूर्य था जिसका प्रकाश आज तक चमक रहा है । ” शांताबाई का जन्म एक महार परिवार में हुआ था । शांता के जन्म से पूर्व उनके परिवार को खासतौर से उनके पिता और दादी को घर में एक लड़का होने की उम्मीद थी और जन्म लिया लड़की ने । लड़की के जन्म से उन्हें बेहद तकलीफ हुई ।
पिता ने अपनी इस तकलीफ के बावजूद शांता को खूब प्यार किया । वह उसे अपने पास बिठाकर पढ़ाते, अपने साथ-साथ लेकर घूमते । उनका दूध बेचने का धंधा था । अचानक शांता के एक भाई की मृत्यु से उन्हें इतना सदमा हुआ कि उन्होंने उसकी क्षतिपूर्ति शराब पीकर की । उनके इस भटकाव से घर बुरी तरह से गरीबी और तंगहाली में आ गया । शांता का बड़ा भाई अण्णा, जो उनका सौतेला भाई था, अब घर की जिम्मेवारी निभाने लगा । शांता की माँ की बड़ी इच्छा थी कि शांता पढ़े । शायद इसलिए कि उनकी बड़ी बेटी की गृहस्थी बहुत खराब चल रही थी । इसकी एक वजह वो अपनी बेटी के पाँव पर खड़ा न होना भी मानती थीं । इसलिए उसने शांता को खूब पढ़ा-लिखाकर पाँव पर खड़ा करने का संकल्प कर लिया था । चौथी कक्षा तक इनकी पढ़ाई गाँव में हुई, पांचवीं के लिए इन्हें गाँव से दूर जाना पड़ा जहाँ इन्हें एक अध्यापक दाणी मिले जिन्होंने इनकी पढ़ाई-लिखाई और व्यक्तित्व विकास में बहुत सहयोग दिया । जागरूक माँ बच्ची की पढ़ाई के बारे में पूछने जाती । दाणी मास्टरजी ने पढ़ाई के प्रति उनकी जागरूकता और महत्वाकांक्षा को पहचान कर शांता को ७वीं कक्षा में पूना के सरकारी विद्यालय में दाखिला दिया ।
इस तरह वे घर से बाहर छात्रावास में रहकर १०वीं की पढ़ाई तक आ पहुँची । इसी दौरान उनकी मुलाकात डॉ. लोंढे से हुई जिनसे इन्हें बड़ी बहन का प्यार व आगे पढ़ने की प्रेरणा मिली । दसवीं के रिजल्ट से पूर्व की इनकी माँ का देहांत हो गया । अब शांता के जीवन ने एक नया मोड़ ले लिया । इन्होंने आगे की पढ़ाई जारी रखी । जब बीए की छात्रा थीं तो इनकी मुलाकात दादासाहब गायकवाड़ से हुई । दादासाहब गायकवाड़ डॉ. भीमराव अंबेडकर के साथ मिलकर छुआछूत के भेदभाव से त्रस्त दलित समाज में विद्रोह के स्वर भर रहे थे । उन्होंने शांता को इन सब बातों की जानकारी दी और बाबासाहब डॉ. अंबेडकर से उनका परिचय कराया । पढ़ी-लिखी दलित युवती दलित आंदोलन की जिम्मेवारी अपने कंधों पर उठाए इससे अच्छी बात और क्या हो सकती है ।
एक बार कार्यकर्ताओं की बैठक में बाबासाहब बोल रहे थे तो उनकी आवाज भर्रा गई । स्वयं को संभालते हुए उन्होंने कहा, “मुम्बई जैसे शहर के बंधुओं की शिक्षा के लिए मैंने बहुत कुछ किया है, परन्तु गाँव में रहने वाले अपने बंधुओं और खासतौर अपनी लड़कियों के लिए मैं कुछ न कर सका, इसका मुझे बेहद दुःख है । ”
शांता इस सभा में उपस्थित थीं । शायद डॉ. अंबेडकर की भर्राई आवाज ने उन्हें जीवन भर ग्रामीण दलित भाई-बहनों के लिए काम करने का संकल्प लेने को प्रेरित किया । शांता ने ताउम्र शादी न करके मिशन का काम करने का संकल्प ले लिया । सार्वजनिक कामों के लिए शांता ने पढ़ाई बीच में छोड़ दी । एक कार्यकर्ता और महिला नेता के रूप में से उन्हें काफी सम्मान मिला । वे नासिक जिले की शेड्यूल्ड कास्ट फेडरेशन की अध्यक्ष मनोनीत कर दी गईं । उनके ओजस्वी भाषण महिलाओं के लिए विशेष आकर्षण थे ।
शांता ने महाराष्ट्र के गाँव-गाँव जाकर दलितों खासकर दलित स्त्रियों को जगाने में अपना जीवन लगा दिया । अपनी सहेली उजागरे बाई की देखरेख में स्कूल खोला । सरकार से उनके कार्यों के लिए जब उन्हें दलित मित्र अवार्ड मिला तो अवार्ड की राशि को उन्होंने डॉ. अंबेडकर शताब्दी के लिए दान कर दिया ।
रिपब्लिकन पार्टी ऑफ इंडिया के नेता दादासाहब गायकवाड़ के साथ मिलकर इनके प्रयासों से भूमि सुधार आंदोलन में तेजी आई । दादासाहब गायकवाड़ के बीमार हो जाने पर पार्टी के नेतृत्व में बंदरबाँट व षड्यंत्र को रोकने में उन्होंने अपने कुशल नेतृत्व का परिचय देते हुए उसे सुलझाने की पहलकदमी की । शांताबाई दाणी ने आरपीआई में टूट-फूट व गुटबंदी को रोकने और एकता लाने के कई बार प्रयास किए ।
आज शांताबाई दाणी हमारे बीच में नहीं हैं परन्तु दलित राजनीति में तथाकथित दिग्गजों की महत्वाकाँक्षा से उभरे विवादों को उन्होंने जिस तरह उन्हें एक साथ लाकर सुलझाने के प्रयास किए वे आज भी हमारे लिए मार्गदर्शक हैं ।
शांताबाई का व्यक्तित्व व उनके कार्यों को उत्तर भारत में लाने का यह प्रथम प्रयास सेंटर फॉर आल्टरनेटिव दलित मीडिया(कदम) कर रहा है ।
शांताबाई दाणी के व्यक्तित्व और कार्यों से भारत के पाठकों का परिचय कराने के पीछे हमारा उद्देश्य है दलित राजनीति में दलित महिला नेत्रियों के जीवन पर प्रकाश डालने के साथ-साथ तत्कालीन आंदोलन में पितृसत्तात्मक रूझानों को स्पष्ट करना । आरपीआई के अनेक नेताओं में शांताबाई दाणी का नाम अग्रणी है । परन्तु हमारे आंदोलन के कर्णधारों ने स्त्रियों के नेतृत्व व योगदान को जाने-अनजाने में पर्दे के पीछे खिसका देने की भूमिका अदा की है ।
- रजनी तिलक
Comments
Post a Comment